01. "वीरांगना" –राजेन्द्र पुरोहित , जोधपुर
उज्जैन के पंडित ओंकारनाथ शास्त्री को कौन नहीं जानता। शास्त्रीय संगीत के पुरोधा। रामपुर सहस्वान घराने का बहुत बड़ा नाम। उस्ताद इनायत अली खां साहब की परंपरा के ध्वज-वाहक। अनेक संगीत-अलंकरणों से सम्मानित पंडित जी जब मंच पर गाते, तो श्रोता भावविभोर हो जाते। कच्चा-पक्का कलाकार तो सामने गाने का साहस भी न करता। रेडियो, टीवी पर कितने ही कार्यक्रम कर डाले, कितने ही देशों में कार्यक्रम दे आये, धन-धान्य की भी कमी नहीं। परंतु पंडित रहे ठेठ के ठेठ देसी पंडित। अपनी परंपराओं को सर्वोच्च मानने वाले पंडित जी कभी भी धर्म से नहीं डिगे। संगीत गुरु को भगवान माना। अपने कुलगुरु के सामने आँखें भी नहीं उठाईं।
पंडित जी के जीवन में वैभव व रस की कमी नहीं थी। कमी थी तो केवल एक सुख की। अपनी संगीत परंपरा को आगे बढाने के लिये उन्हें पुत्ररत्न का आशीर्वाद नहीं मिला था। उनकी धर्मपत्नी वैष्णवी ने उन्हें मात्र एक संतान दी,और वो थी पंडित जी की प्राणों से भी प्यारी पुत्री कंकणा। पंडित जी के रियाज़ में वह बचपन से ही सम्मिलित होती रही। राग, रागिनियाँ, थाट, आरोह, अवरोह आदि तो कंकणा को घुट्टी में मिले थे। माता के भरपूर स्नेह व पिता के बहुमूल्य संगीत ज्ञान के अतिरिक्त, कंकणा को एक और भी विरासत मिली थी, और वो यह कि वह मूल कुमाउँनी देव जाति पंडित घराने की बेटी थी, जिस कुल की मर्यादा में बेटियों का सार्वजनिक रूप से गाना-बजाना वर्जित था।
कंकणा के लिये यह अभिशाप था, लेकिन वह अपने धर्मपरायण पिता की कट्टरता से खूब परिचित थी। तबलची लच्छन चाचा से उसने पिता के परंपरा-निर्वहन के ऐसे ऐसे किस्से सुने थे कि उसकी आत्मा कांप जाती थी। अमरीका में विशुद्ध शाकाहारी भोजन न मिलने पर पंडित नौ दिन लगभग निराहार रह गया, रूस में पीटर्सबर्ग की भयानक ठंड में पंडित ओंकारनाथ ने ठंडे पानी से नहाने का नियम एक दिन के लिये भी नहीं तोड़ा, भले ही निमोनिया से मरते मरते बचे। कंकणा पिता का सम्मान भी बहुत करती थी। पिता भी पुत्री के संगीत प्रेम से अनजान न था। पिंजरे में बंद चिड़िया की विवशता खूब समझता था। एक दिन अपने गुरु के चरणों मे जा कर रोने लगा।
"गुरु जी, कंकणा में संगीत की अपार संभावना है, आप जानते ही हैं। उसकी प्रतिभा को नकार देना क्या अनुचित न होगा..??"
गुरु जी के चेहरे पर क्रोध की लालिमा दौड़ गयी,"मूर्ख ओंकार, क्या कुल की मर्यादा व नियम सब भूल गया??? पुत्री के मोह में अंधा हो गया है तू।"
पंडित जी आँखों में आँसू भर कर बोले,"अंधा ही होता तो सही होता, बल्कि बहरा भी। उसकी मीठी तान न सुनता तो आपके पास आता ही क्यों???"
गुरु जी का पारा और चढ़ गया,"तो जा मर, कर मनमानी। मेरा अपमान करने क्यों आया है???"
पंडित जी ने गुरु के चरणों मे पड़ी धूल को जिव्हा से चाट लिया और बोले,"नहीं नहीं गुरुवर। नर्क में भी स्थान न पाऊँगा, आपसे विमुख हो कर।"
गुरु जी बोले,"देख ओंकार, तू मेरा सर्वश्रेष्ठ शिष्य है। परंतु तुझे भगवान ने पुत्र नहीं दिया जिसे तू अपनी प्रतिभा दे सकता। पुत्री तेरी उत्तराधिकारिणी कभी नहीं बन सकती, यही हमारी परंपरा है।"
पंडित जी अपना सा मुँह लिये लौट आये। कंकणा के गाल थपथपा कर बोले, "गुरु जी से प्रार्थना कर के हार आया मुनिया। अब तेरे विवाह की चिंता करता हूँ। संगीत को तो भूल ही जा।"
कंकणा मानो आसमान से गिरी। संगीत को भूल जाऊं??? जिसका बचपन ही आसावरी, शिवरंजिनी, भैरवी, भीमपलासी, दरबारी, झिंझोटी व पहाड़ी में बीता हो और जवानी खिली हो अहीर भैरव, अड़ाना, काफी, मधमात सारंग व मारू बिहाग में, वह भला संगीत को कैसे भूल सकती है।
संगीत की चितेरी यह सदमा बर्दाश्त नहीं कर सकी व बिस्तर पकड़ लिया। खाना पीना छूट गया। वैद्यराज ने पंडित जी से कहा कि बच्ची को हवा पानी बदलने के लिए कहीं बाहर भेजो, कहीं राजरोग लग गया तो बचेगी नहीं। वैष्णवी का रोते रोते बुरा हाल हो गया। अंत में निर्णय हुआ कि वैष्णवी पुत्री को ले कर अपनी बहन अचला के पास जयपुर जाएगी।
माँ-बेटी भारी मन से रवाना हुईं। जयपुर पहुंचते ही अचला मौसी ने वैष्णवी से सभी विवरण जान लिये। हँसना-हँसाना अचला का स्वभाव था। पति के जवानी में ही परलोक सिधारने के बाद अपने पुत्र यश को पढा लिखा कर बड़ा अधिकारी बनाया। परंतु यश ने विवाह के पश्चात विदेश में बसने का निर्णय किया था, जिस पर अचला सहमत नहीं थी। बेटा-बहू माताजी के लिये घर व धन की पर्याप्त व्यवस्था कर के विदेश चले गये। अचला ने उस दिन से जो न रोने की कसम खायी, सो आज तक बस हँसना हँसाना ही उसका जीवन बन गया है। बहन व भांजी का इतना प्यार व आदर से स्वागत किया कि दोनों निहाल हो गईं। कंकणा के बीमार चेहरे पर खुशी लौटने लगी। अचला नाटकीय तरीके से आँखें तरेर कर बोलती,"ऐ छुटकी, खबरदार जो बीमारी का नाम लिया तो। भगवान के घर पहले तेरी ये मौसी जायेगी, फिर देखेंगे, तुझे बुलाती हूँ या अपनी इस बुढ़िया दीदी को!!!" और खिलखिलाहट का दौर चलने लगता।
लेकिन अचला कंकणा का असली मर्ज समझती थी। शीघ्र ही एक तानपूरा ले आयी और बाकायदा कंकणा का रियाज़ भी शुरू हो गया। उसका गायन सुनकर अचला दंग रह जाती। साक्षात पंडित ओंकारनाथ शास्त्री की प्रतिध्वनि थी। एक दिन सुबह सुबह भैरवी का गायन चुपके से अपने मोबाइल में रिकॉर्ड कर लिया और पहुँच गयी जयपुर रेडियो स्टेशन पर, जहाँ उसकी परिचित शशि काम करती थी। रेडियो के संगीत विभाग के अध्यक्ष भवानीशंकर जी को दोनों सहेलियों ने जब मोबाइल की रिकॉर्डिंग सुनाई, तो वे उछल पड़े,"ये तो साक्षात पंडित ओंकारनाथ शास्त्री की झलक है!!! क्या यह लड़की हमारे शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम में गायेगी???" अचला का चेहरा खुशी से दमक उठा।
"नहीं, नहीं, मौसी। आपने सोचा भी कैसे कि पिता की अवमानना कर आपकी बात मान लूंगी???" कंकणा बिफर उठी।
अचला ने गंभीर हो कर कहा,"ये भैरवी, ये जोगिया…. तुम्हारे घर की अमानत तो नहीं। सनातन काल से लोग सुनते चले आ रहे हैं। तुम्हें क्या अधिकार जो अपने सुरों से संसार को वंचित कर दो??"
परंतु कंकणा टस से मस ही नहीं हुई।
अचानक वैष्णवी ने मौन तोड़ा,"प्रश्न अब संगीत का नहीं रह गया है कंकणा। अब प्रश्न नारी अस्मिता का भी है। मैं तेरे पिता को पुत्र नहीं दे पायी, इस छद्म अपराध बोध तले मैंने अपना जीवन रो रो कर बिताया। काश पुत्र होता तो संगीत परंपरा आगे बढ़ती, यह सुन-सुन कर मेरे कान पक गये। मुझे इस बोझ से मुक्त नहीं करायेगी बिटिया???" मौसी-भांजी ने सदा शांत रहने वाली वैष्णवी से इतनी खरी-खरी सुनने की तो कल्पना ही नहीं की थी। कंकणा ने दौड़कर माँ को गले लगा लिया,"हाँ माँ हाँ, तुझे इस छद्म अपराध बोध से मैं मुक्त करवाउंगी।" अचला की आँखें छलछला उठीं।
कंकणा ने एक बार जो रेडियो में गाया तो प्रस्तावों की कतार लग गयी। शास्त्रीय गायन का सूर्य उज्जैन के स्थान पर जयपुर में उदय हो चुका था। कंकणा का आत्मविश्वास चरम पर था। परंतु माता को अपराध बोध से मुक्ति दिलाती- दिलाती कहीं वह स्वयं भी पिता के प्रति अपराध बोध से ग्रसित होती जा रही थी। जयपुर आये उसे दो माह होने को आये। अब उज्जैन जाना ही चाहिये। सत्य तो वही है। पिता क्षमा नहीं करेंगे, मार ही डालेंगे न। तो, मृत्यु का वरण कर लूँगी, पर अब और नहीं बस। अपने निर्णय से माँ और मौसी को अवगत भी करवा दिया।
अचला हँस कर बोली,"चले जाना भई। परसों एक समारोह रखा है आकाशवाणी वालों ने तुम्हारे सम्मान में। उसमे हिस्सा ले लो। अगले दिन के टिकट करवा देती हूँ माँ-बेटी के। मुझे तो आदत हो चली है अब अकेले छूट जाने की।"
समारोह की भव्यता देखते ही बनती थी। बड़े बड़े संगीत विशारदों का जमावड़ा। टीवी कैमरों की चकाचौंध। उद्घोषक ने कंकणा की प्रशंसा के कसीदे पढ़े व फिर उसे मंच पर बुलाया। माँ सरस्वती का ध्यान व पिता को मन ही मन प्रणाम कर उसने आँखें बंद करके वो सुर छेड़े कि सुनने वाले तो मानो किसी दूसरे ही लोक में पहुँच गये। मीरा का भजन था। मानो कंकणा में मन की आवाज़ ही थी,"प्रभुजी, मोरे अवगुण चित्त न धरो….." गायन समाप्त हुआ, तो करतल ध्वनि से सभागार गूंज उठा। कंकणा ने आँखें खोलीं तो सामने देश के सुप्रसिद्ध शास्त्रीय गायक श्रीमंत विनायक सहस्रबुद्धे जी को देख कर चौंक गई। उठ कर चरण-वंदना की। श्रीमंत ने कंकणा को अंक में भर लिया और बड़े स्नेह से बोले,"तू उस पागल शास्त्री की बिटिया है न। अरे, ओंकार और मैं गुरु भाई हैं। प्रतियोगिता में वह मुझसे कभी नहीं जीता, लेकिन आज उसने तेरे रूप में आ कर मुझे हरा दिया है।" कंकणा की तो मानो जिव्हा ही तालु से चिपक गयी। तभी निदेशक भवानीशंकर जी ने आकर श्रीमंत के कान में कुछ कहा। सुन कर श्रीमंत मुस्कुरा दिये और माइक पर आ कर बोले,"देवियों और सज्जनों, ये बिटिया संगीत का भविष्य है। मैं तो भूतकाल हूँ, परंतु आज मैं आप सभी को एक बहुत बड़ी खुशखबरी देना चाहता हूँ। आज आकाशवाणी जयपुर की ओर से कुमारी कंकणा के पिता और कुमाउँनी देव पंडित परंपरा के विशारद पंडित ओंकारनाथ शास्त्री को भी उनके कुलगुरु के साथ यहाँ सम्मानित करने के लिये बुलाया गया है। आइये पंडित जी, आप मेरे गुरु भाई है। परंतु आज आपकी बिटिया के सुरों के सामने ये विनायक सहस्रबुद्धे, आपसे अपनी पराजय स्वीकार करता है।"
कंकणा तो मानो आसमान से गिरी। उसे लगा कि शायद वो मूर्छित ही हो जायेगी। मंच के नेपथ्य से उसके पिता व कुलगुरु सामने आये। अचला व वैष्णवी ने उनकी चरण वंदना की। कंकणा कटे वृक्ष की भांति पिता के चरणों मे गिर पड़ी। पिता ने पुत्री को गले से लगा लिया और बोले,"कुछ न कहना बिट्टो। वातावरण में अभी भी अहीर भैरव के सुर बिखरे हैं। मुझे क्षमा करना जो मैं दैवीय सुवास को वातावरण में फैलने से रोकने चला था।" कंकणा कुलगुरु के चरणों मे झुकी तो कुलगुरु बोले,"जो परंपरा माँ सरस्वती को वीणा-वादन करने से रोके, वह परंपरा नहीं, रूढ़ि कही जायेगी। आज तेरे कारण हमारा ही नहीं, पूरे कुल का सम्मान हो रहा है।" समारोह भव्यता से सम्पन्न हुआ। जयपुर ने पंडितजी, कुलगुरु व कंकणा को मालाओं से लाद दिया।
विदाई की वेला थी। वैष्णवी ने आँखों में आँसू भर कर अचला से कहा,"तूने जो किया, वो हम कभी नहीं भूल पायेंगी।" कंकणा मौसी के गले लिपट कर बोली,"आप भी हमारे साथ चल कर रहिये न मौसी। यहाँ अकेली क्या कीजियेगा???"
अपने चिरपरिचित विनोदी अंदाज़ में आँखें तरेर के अचला बोली,"अरे तुम सब ठहरे सुरीले, मुझ बेसुरी का वहाँ क्या काम!!" फिर बड़े प्यार से कंकणा के सिर पर हाथ फेरते हुए बोली,"यहीं से सुनूंगी अपनी बिटिया का संगीत। रेडियो में जब तू गायेगी न, तो मुझे लगेगा कि कोई शक्तिशालिनी वीरांगना रूढ़ियों की सलाखें तोड़ कर माइक्रोफ़ोन रूपी माध्यम से अपनी स्वतंत्रता का ऐलान कर रही है।"
02. "तमसो मा ज्योतिर्गमय" श्रुत कीर्ति अग्रवाल
दीपानिता,
शायद मैं तुम्हें एक बार फिर नाराज ही न कर दूँ कि मैंने तय किया है कि अब से मैं तुम्हें दीप पुकारा करूँगा। जानती हो क्यों? तुमने सुना ही होगा, 'तमसो मा ज्योतिर्गमय'... हाँ दीप, वो तुम्हीं हो जिसने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे मेरे तमस से, मेरे अँधेरों से बाहर निकाल कर ज्योति की पहचान कराई है। इसी लिये तो अपनी आदत के विपरीत मैंने मेसेज और मेल को किनारे कर, तुम्हें धन्यवाद देने के लिये, कागज और कलम का सहारा लिया है। थोड़ा रुको, धन्यवाद तो बहुत छोटा सा शब्द है, पर क्या करूँ... आश्चर्यचकित हूँ कि मेरे जैसा, हर समय शब्दों के साथ खेलने वाला इंसान आज अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिये तो शब्द ही नहीं खोज पा रहा है।
बहुत कुछ है तुम्हारे सामने स्वीकारोक्ति को... अपने हर गलत व्यवहार की सफाई देने को... और इसके लिये महज वर्तमान नहीं मुझे अपना अतीत भी तुम्हारे सामने खोल कर रखना होगा। बताना होगा कि मैं ऐसा क्यों था... कि जिस दिन से मैंने होश सँभाला मैंने पाया कि ईश्वर ने मुझे एक अलग से चुम्बकीय व्यक्तित्व से नवाजा है। मैं सुदर्शन था, मेरी स्मित और आँखों की शरारती चमक लोगों को आकर्षित करती थी और सबसे बढकर मैं एक खूबसूरत आवाज का मालिक था। अपने स्टेज शोज़ और गाने-गुनगुनाने के शौक के कारण मैं काॅलेज का हीरो बन गया था और मुझसे थोड़ा सा परिचय करने को, मेरे साथ एक सेल्फी लेने को लड़कियों में होड़ सी लग जाती थी। वह उम्रजनित ही रहा होगा कि ये सब मेरे अंतरतम को गुदगुदा देता था।
फिर पहली ही कोशिश में रेडियो जाॅकी की नौकरी का मिलना और थोड़ी ट्रेनिंग के बाद मेरी आवाज की कशिश का और भी निखर जाना... जिंदगी जब देने पर आती है तो एक झटके में असीमित आकाश को मुठ्ठी में थमा देती है शायद! उस समय जिस भी प्रोग्राम को मैं अपनी आवाज देता, वह हिट हो जाता। रेडियो स्टेशन पर मेरे नाम सैकड़ों खत आते... मानों पूरा शहर सिर्फ मुझे सुनने को पागल हो रहा था। मुझे देखने, छूने और सुनने को बेताब भीड़... मेरी कही बातों को दोहराते, मेरा नाम ले लेकर चिल्लाते लोग... मैं तो एक आम लड़के से सेलिब्रिटी बन चुका था दीप! अब तुम ही बताओ, बिना ज्यादा जतन किए किसी को ऐसी सफलता मिल जाय तो सर चढ कर तो बोलेगी न?
यही वह समय था जब तुमको देखा था मैंने... मैं उस दिन तुम्हारे काॅलेज के किसी प्रोग्राम में चीफ गेस्ट था और तुम स्वागत भाषण पढ़ने आई थीं। तुम्हारी गंभीर और सुस्पष्ट आवाज प्रभावशाली थी, और सादगी से भरी खूबसूरती गरिमामय... कि बाद में जब आॅटोग्राफ माँगती लड़कियों में तुमको पीछे खड़े देखा तो झट पहचान लिया था मैंने! तुम्हारे उस कागज़ के टुकड़े पर मैंने जब चुंबन की मुद्रा में होंठ अंकित किये थे तब मैं तुम्हें शरमाते हुए या फिर कुछ चंचल होते देखना चाहता था पर तुमने उस कागज को मसल कर वहीं फेंक क्यों दिया था?
फिर शायद मेरे भाग्य से, कुछ समय के बाद जब तुम मेरे ही रेडियो स्टेशन में काम करने आईं, तो मैंने पाया कि दूसरी सैकड़ों हजारों लड़कियों की तरह तुम्हें तो मैं कभी भूला ही नहीं था। शायद हर पल तुम मुझे याद थीं और तुम्हें अपने इतने पास पा कर मैं बेहद प्रसन्न भी हुआ था। मुझे लगा कि अब तो जल्द ही तुम मेरी मुठ्ठी में होगी, क्योंकि किसी भी लड़की को अपनी तरफ आकर्षित करना मेरे लिय चुटकियों का काम था न, पर तुमने मेरे हर आमंत्रण को मना कैसे कर दिया? ये तो सीधे मेरे अहम् पर चोट थी... तिलमिलाना शायद लाजमी था... इसी वजह से तुम्हारे जैसी घमंडी लड़की को सबक सिखाना जरूरी लगने लगा था फिर !
तुम वाॅइस कास्ट लिखती थी... रेडियो पर प्रसारित कार्यक्रम श्रोता दोबारा नहीं सुन सकते अतः भाषा और प्रस्तुति ऐसी होनी चाहिये कि एक बार में ही बात पूरी समझ में आ जाय। तुम्हारे आलेख छोटे और सारगर्भित होते थे... मन ही मन तुम्हारी प्रशंसा करने के बावजूद मैं हर समय उसमें कमी क्यों निकालने लगा था? और क्योंकि शुरू में तुमने मेरे व्यवहार को ज्यादा संज्ञान में नहीं लिया, मेरी निष्ठुरता बढती चली गई।
तुम्हारे पिता किसी बड़ी बीमारी से जूझ रहे थे और तुम्हें इस नौकरी की बहुत जरूरत थी पर फिर भी तुम मुझसे न डरी थीं न बाकी कई कई जूनियर्स की तरह तुमने मुझे खुश करने की कोई कोशिश ही की थी। पर मुझे ये क्या हुआ था कि क्यों हर समय मेरा दिमाग सिर्फ तुम्हें नीचा दिखाने की युक्ति खोजता रहता था? क्या कहूँ उसे? घमंड... आहत अहम्, या चूर-चूर कर तुमको अपने सामने झुका लेने की चाहत? जरा सी गलती पर सबके सामने बुरी तरह डाँटना, हर काम में गलतियाँ निकालते रहना और जब-तब तुम्हारा मजाक बनाना स्वभाव बन गया था मेरा! उधर तुम्हारी अपनी अलग ही दुनिया हो मानों कि सब कुछ से बेपरवाह तुम तो अपने कामों, अपने अनुसंधानों में व्यस्त रहा करती थीं। बहुत कम समय में ही तुम अपने कामों में इतनी दक्ष होती जा रही थीं कि कहीं पर तुमसे डर भी लगने लगा था मुझे! सलाम करता हूँ तुम्हें कि तीन साल तक इस अरूचिकर माहौल में काम करती रहीं तुम और उफ भी नहीं की।
मैं एक स्टार था, अपनी चमक से वाकिफ था और कई प्रोग्राम सिर्फ मेरे बल बूते पर चल रहे थे। व्यवधान तब पड़ा जब उस दिन अचानक मेरी आवाज में एक खराश सी सुनाई पड़ी। पहले लगा कि थोड़े परहेज, थोड़े ईलाज से ठीक हो जाउँगा पर मर्ज तो बढता ही जा रहा था। मैं बेचैन था, परेशान था पर किसी चीज से कुछ फायदा ही नहीं हो रहा था। फिर मैं डर गया... क्या इतना ही था मेरा स्टारडम? क्या अब मैं गुमनामी के अँधेरों में खो जाने वाला था? क्या प्रकृति मुझे मेरी किसी गलती की सजा देने वाली थी अब? जैसे-जैसे मेरा टेंशन बढ रहा था, मेरी आवाज की धार और भी कुंद होती जा रही थी। मेरे कार्यक्रमों का स्तर गिर रहा था, शिकायतें आ रही थीं पर मैं कुछ भी तो नहीं कर पा रहा था।
फिर महसूस हुआ कि मुझे एक एसिस्टेंट की जरूरत है। इससे पहले कि मैनेजमेंट मुझे रिप्लेस करे, मैं ही कोई व्यवस्था कर लूँ कि कुछ दिन कोई और मेरे कामों को सँभाल ले और मुझे अपना ईलाज कराने को कुछ वक्त मिल जाय! मैं इसके लिये सैकड़ों लोगों से मिला, इन्टरव्यू और वाॅयस टेस्ट लिये, पर कहाँ किसी को ढूँढ सका? बल्कि इस प्रक्रिया में फँस कर अपनी तरफ तो ध्यान ही नहीं दे पाया कि उसदिन जब मुझे प्रधानमंत्री का इंटरव्यू लेना था, मेरी खसखसी आवाज ने गले से बाहर निकलने से इंकार कर दिया। आँखों के आगे अँधेरा था, दिन में तारे नजर आ रहे थे।बेइज्जती... रुसवाई... आर्थिक दंड या नौकरी से निवृत्ति... क्या हुआ होता उसदिन दीप, अगर स्टूडियो के अंदर, मेरी डबडबाई आँखों से द्रवित हो, तुमने स्वेच्छा से आकर, मुझसे कहीं बेहतर, सबकुछ सँभाल न लिया होता!
उस दिन, उसके बाद के ये अाठ महीने, मेरे सभी कार्यक्रम ज्यों के त्यों चल रहे हैं और उनकी लोकप्रियता घटी नहीं बल्कि बढती ही जा रही है। तुम चाहतीं तो मेरे हर व्यवहार का बदला अब मुझसे ले सकती थीं... मेरे श्रोता, मेरा नाम... मेरी नौकरी... जिस दिन चाहो ले ले सकती थीं पर तुमने ऐसा कुछ भी क्यों नहीं किया दीप? हर बार यही क्यों कहती रहीं कि तुम रेडियो जाॅकी अमन की अनुपस्थिति में उनका प्रोग्राम सँभाल रही हो और श्रोताओं के मन में मेरा इन्तजार जगाए रखती हो। आश्चर्यचकित हूँ तुम्हारे इस रहस्यमय व्यक्तित्व से कि जिससे तुम्हें बेहद नफरत करनी चाहिये उसे जीवित रखने के लिये बिना किसी शिकायत के, इतने लंबे समय से तुम दोगुना काम कर रही हो। नारी की इस असीमित क्षमता, धैर्य और परोपकार की भावना के समक्ष ऐसा नतमस्तक हूँ मैं कि सचमुच आज मेरे शब्दों का खजाना कम पड़ गया है।
ये पत्र मैं तुम्हें मुंबई के उस अस्पताल से लिख रहा हूँ, जहाँ मेरा ईलाज चल रहा है। मैं तुमको बताना चाहता हूँ कि टेंशनमुक्त होने की स्थिति ने काम किया है और धीरे धीरे मैं फिर काम करने के योग्य हो जाउँगा। क्यों लगता है दीप, कि ये तुम्हारी दुआओं का असर है, तुम्हारे विश्वास की जीत है? हर बार, तुम्हारे हर कार्यक्रम को सुनते हुए मैंने ये महसूस किया है कि और किसी को हो न हो, तुम जरूर मेरा इन्तजार कर रही हो!
अब लग रहा है कि कोई तो एक अच्छा काम मैंने भी किया होगा जिसके उपहारस्वरूप ईश्वर ने तुम्हें बनाया है! हाँ दीप... मुझे महसूस होता है कि मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता हूँ... मैं बेहद प्यार करता हूँ तुमको। पर क्या मेरी गलतियों को भूल सकोगी तुम? तुम्हारे जवाब के इन्तजार में...
तुम्हारा अमन
बहुत बहुत बधाई हो,,सुंदर लेखनी लिखने वाले,, राजेंद्र पुरोहित,और श्रुतकिर्ति जी को।
ReplyDeleteहार्दिक आभार। प्रणाम।
ReplyDeleteवाह बहुत सुन्दर. भाषा के साथ साथ प्रस्तुति भी सराहनीय हैं. बधाई हो अनुज और धन्यवाद इस लेख के लिए.
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ReplyDeleteमुझे दोनो कहानियां बहुत अच्छी लगी।इनकी शब्दावलीयाँ प्रभावपूर्ण है।दोनो कहानियों मे शुरू से अंत तक एक प्रवाह बना हुआ है।दोनो कहानियों मे वो चाहे संगीत हो या आवाज की प्रस्तुति हो माईक अपना आधार बनाती है।राजेन्द्र पुरोहित जी कहानी मे अंततः नारी सम्मान को स्थापित करते हैं।बेटे और बेटी को फर्क भरते हैं।
ReplyDeleteराजेंद्र पुरोहित जी और श्रुतकीर्ति जी को बहुत बहुत बधाई।